# Krishan Swarup Gorakhpuria कामरेड कृष्ण स्वरूप गोरखपुरिया को उनके जन्मदिन पर ऑनलाइन कार्यक्रमों के माध्यम से याद किया गया

15 June, 2020, 3:58 pm

कामरेड कृष्ण स्वरूप गोरखपुरिया के जन्मदिन पर कप्तान सिंह आर्य का विशेष लेख

कामरेड Krishan Swarup Gorakhpuria  वैसे तो 73 वर्ष के हो गए थे लेकिन पढ़ने, बतियाने एवं  संवाद रखने में किसी युवा से कतई पीछे नहीं थे । आज अचानक वो चले गए और उनपर लिख पाना बेहद कठिन हो रहा है । फिर भी जिससे एक पूरे आंदोलन के तजुर्बों का साथ था ।  उनपर दिल दिमाग में ताजा हुई भावनाओं का लिखना भी जरूरी है । ताकि उन जैसी प्रेरणा , हौंसला , समझ उनसे  मिलती थी उसका शुक्रिया तो हो सके । 

 

सर्वोदय भवन की रविवारीय सभा समाप्त होते ही, जब कभी वो उसमें पूरे उत्साह के साथ मिल जाते थे तो हमेशा उनसे हमे प्रेरणा मिलती थी कि अब वो एक घण्टे का बस का सफर करके घर जाएंगे ।मेरा उनसे असल सम्पर्क उनके गांव में आने वाले परमाणु संयंत्र के विरोध प्रदर्शनों में ही हुआ ।कहने को तो वो राजनेता, राजनैतिक दल के और न जाने क्या क्या पहचान रखते थे लेकिन थे वो सामाजिक कार्यकर्ता ही । 

उनकी मां ने कृष्ण स्वरूप को बताया था कि 1947 के बंटवारे के समय वे आठ महीने के थे । हालांकि स्कूली रिकॉर्ड के मुताबिक अब वे 73 के हो गए थे प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी कृष्ण स्वरूप बातचीत में बहुत सरल इंसान रहे । उनके पास आजादी के बाद के इतिहास की कहानियों का जैसे पूरा खजाना था ।

वे जब पांच साल के थे तो एक स्थानीय आर्य समाजी नेता मास्टर मादूराम गोरखपुर गांव में उनके पिता के घर आए थे ।वे बताते थे कि मादूराम ने जिस तरह से अंधविश्वास और मूर्ति पूजा के विरोध में निर्भीक तरीके से अपने विचार व्यक्त किए, उससे वे बहुत प्रभावित हुए थे ।वे अब अपना पूरा समय लोगों को शिक्षित करने में व्यतीत करते रहे, जिनमें स्कूली बच्चे, कॉलेज के छात्र, कर्मचारी संघ, किसानों का समूह और स्थानीय खाप पंचायतें शामिल रहीं । सभी लोग उनकी क्रांतिकारी बातें ध्यान से सुनते थे ।

 

1970 के दशक के शुरू में एमए के दौरान छात्र राजनीति में कदम रखने वाले स्वरूप बताते हैं कि 1973 में हिसार के जाट कॉलेज से उनका नाम काट दिया गया था क्योंकि उन्होंने अध्यापकों की राज्यव्यापी हड़ताल का समर्थन करने का फैसला किया था ।छात्र राजनीति के अनुभवों ने उन्हें वामपंथ की तरफ मोड़ दिया था । वे माकपा के कार्ड होल्डर बन गए पर 2008 के बाद उन्होंने खुद को राजनीति से अलग कर लिया ।

 

 लेकिन आज भी लोग उन्हें सम्मान से 'कॉमरेड कृष्ण स्वरूप गोरखपुरिया' के नाम से बुलाते थे ।गोरखपुर में उन्होंने कॉमरेड पृथ्वी सिंह यादगार समिति का नेतृत्व किया था । गांव के किनारे इस समिति का एक भवन है जहां लोगों का जमघट लगा रहता है ।यह उन कई जगहों में से एक है जहां वे गांव और आसपास के युवाओं से चर्चाएं करते रहे और उन्हें अपने साथ जोडऩे का प्रयास करते थे । उनकी चर्चाओं में खेलकूद, वृक्षारोपण, ऑर्गेनिक और शून्य बजट की खेती से लेकर विज्ञान और शिक्षा में हो रही प्रगति जैसे विषय और उन विषयों पर विद्वानों के व्याख्यान शामिल होते थे ।  उनका सेंटर स्पोट्र्स अकादमी के तौर पर भी काम करता रहा है जहां से अनेक लड़के राष्ट्रीय वॉलीबाल में हिस्सा लेने गए । इसके अलावा यहां एक कोचिंग सेंटर भी चलता है जहां लड़के और लड़कियां प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं । कृष्ण स्वरूप गोरखपुर के सेंटर में समय देने के बाद बचे हुए समय में कर्मचारी संघों, छात्रों और किसानों को भी संबोधित करते रहते थे ।

लेकिन कॉमरेड केवल उपदेशक भर नहीं थे । उनके चार में से दो बच्चों यानी पुत्र Sukhbir Siwach और  बाद में पुत्री Sunita Siwach ने भी उनके आशीर्वाद से ही अंतरजातीय विवाह किए हैं । 1977 में जब गोरखपुर के जाटों ने वाल्मीकियों का बहिष्कार किया तो स्वयं जाट कृष्ण स्वरूप ने ऐसा करने से मना कर दिया ।  वे वाल्मीकि परिवारों से घुलने-मिलने लगे और उन्हें अपने खेतों में जानवर चराने के लिए कहा । एक साल बाद 1978 में वाल्मीकियों और जाटों ने उन्हें गोरखपुर का सरपंच चुन लिया ।वे अगणित लोगों को प्रेरित करते रहते थे जिनकी वजह से लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित हुआ ।

वो कहते थे कि आपातकाल का सबक भूलाया न जाए , 26 जून 1975  को सुबह 8 बजे तत्कालीन प्रधान मन्त्री इन्दिरा गांधी ने समाचारो की जगह सीधा राष्ट्र के नाम सम्बोधन करके एमरजैन्सी लागू करने पर वे फौरन अपने पडोस के गांव सिवानी बोलान की तरफ प्रस्थान कर गए और उनकी जगह पकडे गये उनके पिताजी चौधरी रण सिह जिनको पुलिस पकड कर भूना थाना ले गयी और शर्त लगा दी कि कृष्ण स्वरुप की गिरफ्तारी के बाद ही उनको रिहा किया जाएगा ।  एस.एस.पी कल्याण रुद्रा भूना थाना आए तो उनके पिताजी को उन्हें पेश करने के प्रयोजन,हिदायत से तीन दिन के लिए छोड दिया गया | का.बलबीर सिह ने रात को दो बजे उनसे उनके पिताजी की बात करवाई | पिताजी ने बताया कि थाना में उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाता है, यहा तक कि चाय, खाना व हुक्का की भी व्यवस्था है

 का.सुरजीत ने कहा है कि गिरफ्तार नेताओ के परिवारो और बच्चो को सम्भालने के लिए बाहर रहना जरूरी है | जमीन जायदाद व पशुओ को निलाम करने की धमकी फर्जी है | उनके पिताजी ने तीसरे दिन अपना हुक्का, तम्बाकू व गोस्सों अर्थात गोबर के उपलों की पाड के साथ थाने में प्रवेश किया और एस.एस.पी.कल्याण रूद्रा को बताया कि उनकी पार्टी का गिरफ्तार न होने का फैसला है और यहा रहने के लिए अपना हुक्का लेकर आया हू | कल्याण रूद्रा ने परेशानी के लिए माफी मांगी और गंगाराम ए.एस.आई ,जिसकी कामरेड को ही पकडने की डयूटी थी को आदेश दिया कि चौ.रण सिह को गाडी में गोरखपुर छोडकर आओ । इतफाक की बात है कि 26 जनवरी 1992 को राज्यपाल धनिक लाल के कार्यक्रम में बुजुर्ग नेता मनी राम बागडी  ने उनकी और डीजीपी कल्याण रूद्रा की मुलाकात करवा दी और तब उनके पिताजी की हिम्मत व व्यवहार के बाबत रुद्रा साहब ने उनकी अच्छी तारीफ की थी ।

 

      सोशलिस्ट नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर इन्दिरा गांधी का रायबरेली से चुनाव 12 जून 1975 को रद्ध हो गया था और उसको 27 जून तक अपील का समय दिया गया था, जिसकी अवधि पूरा होने से एक दिन पूर्व 26 जून को डरी हुई इंदिरा ने आपातकाल लागू कर दिया था | आपातकाल में सारी लोकतान्त्रिक संस्थाओं और जनवादी अधिकारों को पंगू बना दिया गया था | खुद राजनारायण, ज्योतिर्मय बसु व जार्ज फर्नाडिस जैसे बडे नेताओं को हिसार में रखा गया था | विश्वविख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर जैसे नेता भी जेलों  में रहे थे | कामरेड कृष्ण स्वरूप को गिरफ्तार न कर पाने से परेशान सरकार ने उन्हें 10 नम्बरी ईश्तिहारी मुजर्रिम घोषित करके थाना भूना की सूचि बदमाशान मे शामिल कर लिया था | इस बदमाशान सूचि से उनका नाम 1978 गांव का सरपंच बनने के बाद ही हटाया गया था |

 

    18 महीने का फरारी जीवन जब उनके निकट सहयोगी का.पृथ्वी सिह  गोरखपरिया 26 जून 1975 को सुबह ही पकड लिए गये थे और उनको दी ट्रिब्यून के कश्मीरी पत्रकार एम एल काक, मनीराम बागडी, नन्दकिशोर सोनी, लाला बलवन्तराय तायल, धर्म सिह कासनी, हीरानन्द आर्य, शकरलाल, सहित अनेको नेताओ के साथ हिसार जेल मे रखा गया | उनका पुलिस की नजरो से बचकर 18 माह तक जनता के बीच रहना और उनका विश्वास जीतना काफी बडी उपलब्धि थी |

उनके अंदर जब कोई दुविधा होती तो वह उसे दूर करने के लिए स्पष्ट स्टैंड लेने में कभी नहीं हिचकते थे । जब उनके गांव में प्रस्तावित परमाणु संयंत्र के विरोध प्रदर्शनों के दौरान सभी राजनैतिक दलों से वाद विवाद रहते थे तो उनसे भी मैं कैसे प्यार से बोल बनाए रख सकता था । एक दिन मैंने उन्हें भी कह दिया कि सर आप यहां तो परमाणु विरोधी हो और वहां बंगाल में आपके लोग ऐसा क्यों नही करते, कटाक्ष भी किया क्या कामरेडों के लगाए जा रहे परमाणु संयंत्र कम खतरनाक , कम महंगे , कम बुरे रहते हैं ।  यकीनन उसी दिन उन्होंने परमाणु संयंत्रों पर दलों के दोगले पन का विरोध करना शुरू किया और अपने दल तक को उन्हें छोड़ना पड़ा होगा ।

उनके जज्बे और स्पष्ट समझ के लिए उनकी निष्ठा इस एक बात से समझी जा सकती है कि वह जींवन पर्यन्त  निसंकोच विद्यार्थी ही रहे , चाहे स्तर साल की आयु में एम ए इतिहास पढ़कर , या परमाणु संयंत्रों की इकोनॉमिक्स और साइंस समझने हेतु या फिर 1857 में हुई घटनाओं पर व्याख्यान देकर ।

उनके द्वारा हिसार के सर्वोदय भवन में दिए जाने वाले व्याख्यान, अखबारों में लिखे जाने वाले लेख , निरन्तर पठन , बात चीत के लिए अपने व्यस्त जीवन मे से भी लोगों को न केवल उपलब्ध रहना बल्कि प्रो एक्टिवली उम्र ~ समझ में छोटे व्यक्तियों पहुंचना , ऐसी न जाने कितनी बातें अब हम जैसों को उनकी कमी अखरवाती रहेगी ।लेकिन उनके जीवन के उदाहरण से , उनके संवाद के तरीकों से , उनके हमेशां  समाज हेतु उपलब्ध रहने के नतीजों के रूप में बने रहने वाले अभावों के बावजूद  थके बगैर , रुके बगैर पूरी ताकत से, पूरी मेहनत से, पूरी जानकारी से चलते रहने के गुण संभावनाओं की तलाश में लगे कार्यकर्ताओं के लिए मिशाल बने रहेंगे ।