यशवंत देशमुख ने कहा सारे चुनाव साथ संभव पर जोखिम भी दूर करें

26 September, 2018, 12:33 pm

आजकल ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को लेकर बहुत चर्चा और विवाद है। मैंने इसे लेकर कई कार्यशालाओं, डिबेट में हिस्सा लिया और अलग-अलग जगहों पर सारे विचार सुनने के बाद मुझे लगा कि इस विषय के दो अलग-अलग हिस्से हैं। एक- तकनीकी पक्ष, जिसमें हम यह जांचें कि क्या वास्तव में भारत में ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ किया जा सकता है और दो- क्या ऐसा करना उचित है! 

पहली बात कि क्या आज चुनाव आयोग के लिए ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को अमल में लाना तकनीकी रूप से संभव है। ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग की ओर से विरोधाभासी बयान आए हैं। दरअसल, उनसे सही सवाल नहीं पूछे गए। जब-जब चुनाव आयोग से पूछा गया कि क्या ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ संभव है, तो उन्होंने कहा कि उसके लिए कानून लाना पड़ेगा।

जो बिल्कुल सही बात है।  जहां तक अमल में लाने का सवाल है उसमें एक बात बहुत साफ है कि फिलहाल सरकार की मंशा सारे, 29+1 (दिल्ली को जो एक राज्य मानते हैं) राज्यों में एक साथ चुनाव कराने की नहीं है। सरकार की मंशा दिखती है कि इस साल के विधानसभा चुनाव दो-एक महीने आगे खिसकें और अगले साल के विधानसभा चुनाव करीब छह महीने पहले कराए जाएं।

 

लोकसभा के चुनाव के साथ पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सामान्यत: होते ही हैं, ये सारे मिलाकर इन दो वर्षों के चुनाव एक साथ हो जाएं। इसमें भाजपा के पक्ष में एक बात है कि जहां अगले साल चुनाव कराए जाने की संभावना है, वे सारे भाजपा शासित राज्य हैं। उनके लिए यह कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है।

 

जैसा कि हम जानते हैं कि अगर 2019 के लोकसभा चुनाव होते तो साथ में कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव सामान्य चुनावी चक्र में भी हो रहे हैं जैसे आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, अरुणाचल और सिक्किम। इसके अलावा चार और राज्य हैं जिनके विधानसभा चुनाव इस वर्ष होना तय हुए हैं वे हैं राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम। 

 

इसके अतिरिक्त 2019 के अंत में जो महत्वपूर्ण राज्य हैं, जिनके चुनाव होना तय हैं वो हैं महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा। जम्मू-कश्मीर में भी 2015 में चुनाव हुए थे, लेकिन जम्मू-कश्मीर विधानसभा का कार्यकाल छह वर्ष का होता है। इस नाते जम्मू-कश्मीर के विधानसभा का सामान्य चुनाव पांच वर्ष का नहीं, बल्कि छह वर्ष के बाद होता है यानी यह 2020 में अपेक्षित है।  

 

कुल-मिलाकर सवाल यह है कि क्या इन सारे राज्यों के चुनाव लोकसभा के चुनाव के साथ हो सकते हैं? क्या चुनाव आयोग इसके लिए तैयार है और क्या यही मंशा सरकार की है कि फिलहाल ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की पहली पायदान पर ये सारे चुनाव साथ में हों? यह स्पष्ट होने के बाद में मुझे इस बात पर थोड़ी रिसर्च करनी पड़ी कि चुनाव आयोग ऐसा क्यों कह रहा है कि वह ये चुनाव साथ में नहीं करा सकता।

 

जानकर आश्चर्य होगा कि चुनाव आयोग ने दरअसल एक बार भी नहीं कहा कि वह इन सारे राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ नहीं करा सकता। चुनाव आयोग ने बार-बार यही कहा है कि फिलहाल तय किया गया है कि आगामी सारे चुनाव नई इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी वीवीपैट वाली मशीन, जिसमें पर्ची भी प्रिंट होकर निकलती है, उन पर ही कराए जाएंगे।

 

फिलहाल जितनी वीवीपैट मशीनें चुनाव आयोग के पास हैं, वे इतनी नहीं हैं कि सारी विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराए जा सकें। लेकिन क्या चुनाव आयोग के पास इतनी वीवीपैट मशीनें हैं कि वह फिलहाल लोकसभा चुनाव के साथ जिन राज्यों की मैंने सूची दी उनके चुनाव साथ में करा पाए? 

 

इस पर मैंने काफी रिसर्च की और पिछले तीन चुनावी चक्र में सामान्यत: चुनाव आयोग ने कितने बूथ निर्धारित किए, किस किस्म के उम्मीदवार रहे और कितनी वोटिंग मशीन की जरूरत पड़ी, उसके सारे आंकड़े इकट्‌ठा किए तो आश्चर्यजनक परिणाम आए।

 

वीवीपैट मशीनों की संख्या और उनके पास में उनके शेड्यूल के हिसाब से, इतनी नई वोटिंग मशीन हैं कि आयोग इन सारे राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ कराने की स्थिति में है। खुदा न खास्ता अगर कर्नाटक की अल्पमत सरकार आपस की लड़ाई में ढह गई तो कर्नाटक विधानसभा के चुनाव भी इनके साथ कराने की हैसियत है।

 

इन सारे चुनावों के लिए कुल मिलाकर 17 लाख वोटिंग मशीनें लगेंगी, जबकि चुनाव आयोग के पास 17 लाख 40 हजार वोटिंग मशीनों की गुंजाइश पहले से है। ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ हुए और अगर कोई सरकार  अवधि पूरी नहीं कर पाई और बीच में ही गिर गई तो चक्र टूटने का खतरा है।

 

इसका सरल उपाय यह है कि अगर मध्यावधि चुनाव होता है तो  उपचुनाव की तरह चुनी हुई सरकार का कार्यकाल शेष अवधि के लिए ही माना जाए। इसलिए चुनाव सुधार के तहत यह कानून बनना आवश्यक है। दूसरा महत्वपूर्ण सवाल देश में लोकतांत्रिक जरूर है लेकिन, इसमें कई जगहों पर सीधे प्रजातंत्र की वह गुंजाइश नहीं है जो पश्चिम के बड़े देशों में उपलब्ध है।

 

मसलन हम जब वोट देते हैं तो हमारे विधायक, सांसद, सरकार की  हमारे प्रति पांच साल तक कोई जवाबदेही नहीं बन पाती। पश्चिम में महत्वपूर्ण फैसलों पर जनादेश लेने की परम्परा है। ब्रिटेन में जनमत संग्रह हुआ कि उसे यूरोपीय यूनियन में रहना चाहिए या नहीं। वह निर्णय केवल सांसदों और सरकार पर नहीं छोड़ा गया। जैसे अभी मोदी सरकार ने 2015 में भूमि अधिग्रहण कानून लाने की कोशिश की।

 

उसका विरोध हुआ, लेकिन क्या जनता से पूछा गया कि वह क्या चाहती है? अगर जनता को महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए सीधे जनमत संग्रह का अधिकार नहीं मिलता है और सारे चुनाव एक साथ हो जाते हैं तो सारे महत्वपूर्ण फैसले जनता से पूछे बिना होने के अथवा विधायक,सांसद व सरकार द्वारा मनमर्जी चलाने का बहुत बड़ा खतरा ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ में है। 

 

आज अगर सारे विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ हो जाएं तो आपके पास अपनी नाराजगी  जताने का बीच में मौका न हों तो क्या यह पूरी कवायद जनादेश धोखा नहीं होगा? जनमत संग्रह को संविधान का हिस्सा बनाए बिना यह कवायद जनता और लोकतंत्र के बहुत ज्यादा फायदे का सौदा होगी, इसमें मुझे संदेह है। (लेखक वरिष्ठ चुनाव विश्लेषक हैं)