सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता क्या बहन-भाई नहीं हो सकते?

8 April, 2019, 2:28 pm

आपातकाल के दौरान स्वर्ण सिंह कमेटी की सिफ़ारिशों के अनुरूप हुए 42वें संविधान संशोधन पर बहुत बहस हो चुकी है। विरोधी कहते हैं कि यह बिल मिनी संविधान की तरह था। 42वें संविधान संशोधन के तहत संविधान का प्रिएंबल यानी प्रस्तावना तो बदली ही, साथ ही 40 अनुच्छेदों और सातवीं अनुसूची में बदलाव के अलावा 14 नए अनुच्छेद भी संविधान में जोड़े गए। यही नहीं, दो नए खंड संविधान में और जोड़े गए। लेकिन 1976 में लागू हुए 42 संविधान संशोधन बिल के 42 साल बाद अब गड़े मुर्दे उखाड़ने और इस मामले के जटिल, गंभीर विश्लेषण से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है कि सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की रौशनी में आज के रोज़मर्रा हालात के कुछ पहलुओं की पड़ताल की जाए।       

आजकल राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्दों पर बहस चल रही है। यहां तक कि इन तीन शब्दों से जुड़े दो मूल विचारों के बीच द्वंद्व शेष समाज के लिए बहुत तनावकारी साबित हो रहा है। सवाल यह है कि क्या ये दोनों विचार सिर्फ़ राजनैतिक विमर्श के लिए हैं? क्या भारतीय सामाजिक चेतना से इनका कोई सीधा सरोकार नहीं है? क्या सियासी पार्टियां देश को अपने-अपने हिसाब से राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता की परिभाषाओं में बांट रही हैं। क्या राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता सच्चे अर्थों में एक-दूसरे के पूरक विचार नहीं हो सकते? सांप्रदायिकता का वास्तविक अर्थ क्या है? या फिर इन सबका अलग-अलग संपूर्ण अस्तित्व एक थाली में दाल-रोटी-सब्ज़ी-चावल की तरह क्यों नहीं हो सकता?

देश के लोगों को नागरिकीय अस्तित्व की सर्वोच्चता और आत्मगौरव का ऐहसास तभी हो सकता है, जब इन प्रश्नों के उत्तर उनके ज़ेहन के अपने मौलिक आकारों में हों। इन प्रश्नों के उत्तर हमें शुद्ध भारतीय घरेलू नुस्ख़ों में ही तलाशने होंगे, न कि सुदूर उत्तर-दक्षिण या पूर्व- पश्चिम से आयातित वैचारिक तत्वों में। बेहद ज़रूरी है कि हम घरेलू नुस्ख़ों की बारीक़ियां आत्मसात करने के साथ ही शेष विश्व की विस्तारवादी रेसिपीज़ की पेचीदग़ियों से भी अनजान न रहें। विडंबना है कि आज कोई राष्ट्रवाद शब्द का उल्लेख भर कर दे, उसकी वक़ालत कर दे, तो उसे दक्षिणपंथी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या बीजेपी से जोड़ दिया जाता है। विडंबना यह भी है कि अगर कोई धर्मनिरपेक्ष शब्द पर ज़ोर दे, भारतीय संदर्भ में सेकुलर होने को ज़रूरी करार दे, तो दूसरा विचार उसे वामपंथी और देश-विरोधी घोषित कर देता है। क्या देश का आम आदमी दोनों संस्कारों के साथ सच्चा भारतीय नहीं हो सकता? इन सवालों के जवाब तलाशिए और अपनी राय दीजिए।