कमल ज़रूरी है, तो हंसिया भी क्यों ज़रूरी है?

कमल यानी पंकज को पनपने के लिए घरती के गर्भ से निकले उसके बीज, कीचड़ और पानी चाहिए, तो हंसिया बनाने के लिए धरती की कोख से निकले लौह अयस्क, आग और उसे धधकाने के लिए हवा की ज़रूरी है। क्या ये दोनों धरती, पानी, आग और हवा के बिना पनप सकते हैं? कमल और हंसिये में एक ही मूलभूत अंतर है। कमल का जन्म और विस्तार शुद्ध प्राकृतिक रचना प्रक्रिया है और हंसिये का निर्माण शुद्ध मानवीय रचना प्रक्रिया। ज़रा सोचिए कि क्या प्रकृति बिना मानवीय श्रम और संयोजन के सजी-सवंरी रह सकती है?
इसलिए कमल और हंसिया एक दूसरे के पूरक हैं। कमल तो क़ुदरत के हिसाब से ही आकार लेगा, लेकिन हंसिया भारतीय ज़रूरतों के हिसाब से निर्मित होना चाहिए, यह ज़रूरी है। पूजा स्थल तक पहुंचाना है, तो परिवक्व कमल को काटने के लिए हाथ और हंसिया चाहिए ही। लेकिन कमल या हंसिया अगर किसी उन्मादी व्यक्ति-समूह के हाथ लग जाएं, तो ये दोनों प्रतीक विचार नहीं रह जाते, नकारात्मकता के प्रतीक बन जाते हैं। इसलिए कोई उन्मादी व्यक्ति न तो राष्ट्रवादी हो सकता है, न ही धर्मनिरपेक्ष। किसी भी सामूहिक सामाजिक विचार के लिए सकारात्मकता पहली शर्त है।
जिस तरह मानव शरीर असंख्य कोशिकाओं से बनता है, उसी तरह सारी जीवन पद्धतियों को पुष्ट करने और संचालित करने वाला सच टुकड़ों में बंटा होता है। क्या ये टुकड़े अंतत: एक-दूसरे के धुर-विरोधी हो सकते हैं? या फिर किसी दुष्प्रचार या अज्ञानता की वजह से कोई इन्हें धुर-विरोधी समझने लगता है? बहुत बार होता है कि सत्य के एक संवेदनशील टुकड़े के कई समानार्थी, लेकिन अलग-अलग सांस्कृतिक, भाषिक संस्कारों में ढले एक ही ध्वन्यर्थ के लिए तय किए गए उच्चारणों में नफ़रत के भाव भर दिए जाते हैं। यह करता कौन है? यह तीसरा और बेहद स्वार्थी तबक़ा है। इसे पहचानने की ज़रूरत है और पहचान कर उस पर कड़े प्रहार की ज़रूरत है। क्या आप बता सकते हैं कि वह तीसरा पक्ष कौन सा है? अपनी राय दीजिए।